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अश्वं॒ न गू॒ळ्हम॑श्विना दु॒रेवै॒ॠषिं॑ नरा वृषणा रे॒भम॒प्सु। सं तं रि॑णीथो॒ विप्रु॑तं॒ दंसो॑भि॒र्न वां॑ जूर्यन्ति पू॒र्व्या कृ॒तानि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvaṁ na gūḻham aśvinā durevair ṛṣiṁ narā vṛṣaṇā rebham apsu | saṁ taṁ riṇītho viprutaṁ daṁsobhir na vāṁ jūryanti pūrvyā kṛtāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्व॑म्। न। गू॒ळ्हम्। अ॒श्वि॒ना॒। दुः॒ऽएवैः॑। ऋषि॑म्। न॒रा॒। वृ॒ष॒णा॒। रे॒भम्। अ॒प्ऽसु। सम्। तम्। रि॒णी॒थः॒। विऽप्रु॑तम्। दंसः॑ऽभिः। न। वा॒म्। जू॒र्य॒न्ति॒। पू॒र्व्या। कृ॒तानि॑ ॥ १.११७.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) सुख की प्राप्ति (वृषणा) और विद्या की वर्षा करानेवाले (अश्विना) सभा सेनापतियो ! तुम दोनों (दुरेवैः) दुःख को पहुँचानेवाले दुष्ट मनुष्य आदि प्राणियों (दंसोभिः) और श्रेष्ठ विद्वानों ने आचरण किये हुए कर्मों से ताड़ना को प्राप्त (अश्वम्) अति चलनेवाली बिजुली के समान (विप्रुतम्) विविध प्रकार अच्छे व्यवहारों को जानने (रेभम्) समस्त विद्या गुणों की प्रशंसा करने (अप्सु) विद्या में व्याप्त होने और वेदादि शास्त्रों में निश्चय रखनेवाले (तम्) उस पूर्व मन्त्र में कहे हुए (ऋषिम्) वेद पारगन्ता विद्वान् के (न) समान (गूढम्) अपने आशय को गुप्त रखनेवाले सज्जन पुरुष को सुख से (सं, रिणीथः) अच्छे प्रकार युक्त करो, जिससे (वाम्, पूर्व्या, कृतानि) तुम लोगों के जो पूर्वजों ने किए हुए विद्याप्रचाररूप काम वे (न) नहीं (जूर्य्यन्ति) जीर्ण होते अर्थात् नाश को नहीं प्राप्त होते ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों से जैसे डाकुओं द्वारा हरे छिपे हुए स्थान में ठहराये और पीड़ा दिये हुए घोड़े को लेकर वह सुख के साथ अच्छी प्रकार रक्षा किया जाता है, वैसे मूढ़ दुराचारी मनुष्यों द्वारा तिरस्कार किये हुए विद्याप्रचार करनेवाले मनुष्यों को समस्त पीड़ाओं से अलगकर, सत्कार के साथ सङ्ग कर, ये सेवा को प्राप्त किये जाते हैं और जो उनके बिजुली की विद्या के प्रचार के काम हैं, वे अजर-अमर हैं, यह जानना चाहिये ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नरा वृषणाश्विनादुरेवैर्दंसोभिः पीडितमश्वमिव विप्रुतं रेभमप्सु सुनिष्ठितं तमृषिं न सुखेन गूढं संरिणीथः। यतो वां युवयोः पूर्व्या कृतान्येतानि कर्माणि न जूर्य्यन्ति ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वम्) विद्युतम् (न) इव (गूढम्) गूढाशयम् (अश्विना) सभासेनेशौ (दुरेवैः) दुःखं प्रापकैर्दुष्टैर्मनुष्यादिप्राणिभिः (ऋषिम्) पूर्वोक्तम् (नरा) सुखनेतारौ (वृषणा) विद्यावर्षयितारौ (रेभम्) सकलविद्यागुणस्तोतारम् (अप्सु) विद्याव्यापकेषु वेदादिषु सुनिष्ठितम् (सम्) (तम्) (रिणीथः) (विप्रुतम्) विविधानां व्यवहाराणां वेत्तारम् (दंसोभिः) शिष्टानुष्ठितैः कर्मभिः (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (जूर्य्यन्ति) जीर्य्यन्ति जीर्णानि भवेयुः (पूर्व्या) पूर्वैः कृतानि (कृतानि) कार्य्याणि विद्याप्रचाररूपाणि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा दस्युभिरपहृतं गुप्ते स्थाने स्थापितं पीडितमश्वं संगृह्य सुखेन संरक्ष्यते तथा मूढैर्दुष्कर्मकारिभिस्तिरस्कृतान् विद्याप्रचारकान्ममुष्यानखिलपीडातः पृथक्कृत्य संपूज्य सङ्गत्यैते सेव्यन्ते यानि च तेषां विद्युद्विद्याप्रचाराणि कर्माणि तान्यजरामराणि सन्तीति वेद्यम् ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. डाकूंनी लुटलेल्या व गुप्त स्थानी लपविलेल्या त्रस्त अश्वांचे राजपुरुषांकडून रक्षण केले जाते तसे मूढ दुराचारी माणसांद्वारे तिरस्कृत केलेल्या, विद्या प्रचार करणाऱ्या माणसांची संपूर्ण त्रासापासून सुटका करून आदराने सेवा केली जाते. कारण त्यांचे जे विद्युत विद्येच्या प्रचाराचे काम आहे ते अजर अमर आहे हे जाणले पाहिजे. ॥ ४ ॥